मोदी सरकार द्वारा जातीय जनगणना कराने के फैसले को लेकर सियासी हलकों में हलचल तेज है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह कदम भाजपा द्वारा विपक्ष से एक अहम राजनीतिक औजार छीनने की रणनीति है, जिसका सीधा असर आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में देखने को मिलेगा।
समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का नारा लंबे समय से रहा है—”जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी”। जातीय जनगणना को लेकर इन दलों ने वर्षों से राजनीतिक जमीन तैयार की है। सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव और बसपा संस्थापक कांशीराम, दोनों ने सामाजिक भागीदारी के सवाल को बार-बार उठाया। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो हाल ही में पीडीए (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) और गैर-पीडीए अधिकारियों का जिलेवार डेटा जारी करने की बात कही थी। कई जिलों में पार्टी ने आंकड़े भी जारी किए।
बसपा प्रमुख मायावती ने भी समय-समय पर जातीय जनगणना की मांग को दोहराया है, ताकि अपने पारंपरिक वोट बैंक को साधा जा सके। वहीं, भाजपा के भीतर भी इस मुद्दे पर दबाव बढ़ता गया। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने खुले तौर पर कहा है कि वे जातीय जनगणना के खिलाफ नहीं हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला ऐसे समय में लिया गया है जब पहलगाम आतंकी हमले से देश गमगीन है और विपक्ष सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा है। जातीय जनगणना का मुद्दा एकाएक सामने लाकर भाजपा ने बहस की दिशा मोड़ दी है।
जेएनयू के पूर्व प्राध्यापक और राजनीतिक विश्लेषक प्रो. रवि कुमार का कहना है कि भाजपा की रणनीति यह रही है कि वह अपने खिलाफ कोई नकारात्मक धारणा बनने नहीं देती। कृषि कानूनों की वापसी भी इसी सोच का हिस्सा थी। अब जातीय जनगणना कराकर भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह ओबीसी हितों की अनदेखी नहीं कर रही।
अब सबकी निगाहें बिहार चुनाव पर टिकी हैं, जो भाजपा के इस निर्णय की सफलता या असफलता का असली लिटमस टेस्ट होगा।




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